कविताएँ

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मातृ-भू, शत-शत बार प्रणाम

मातृ-भू, शत-शत बार प्रणाम ऐ अमरों की जननी, तुमको शत-शत बार प्रणाम, मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम। तेरे उर में शायित गांधी, 'बुद्ध औ' राम, मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।   हिमगिरि-सा उन्नत तव मस्तक, तेरे चरण चूमता सागर, श्वासों में हैं वेद-ऋचाएँ वाणी में है गीता का स्वर। ऐ संसृति की आदि तपस्विनि, तेजस्विनि अभिराम। मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।   हरे-भरे हैं खेत सुहाने, फल-फूलों से युत वन-उपवन, तेरे अंदर भरा हुआ है ...

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मेरी वीणा में स्वर भर दो

मेरी वीणा में स्वर भर दो!   मैं माँग रहा कुछ और नहीं केवल जीवन की साध यही, इसको पाने ही जीवन की साधना-सरित निर्बाध बही   उड़ सकूँ काव्य के नभ में मैं उन्मुक्त कल्पना को पर दो।   केवल तुमको अर्पित करने भावों के सुमन खिलाए हैं पहिनाने तुमको ही मैंने गीतों के हार सजाए हैं!   अपने सौरभ के रस-कण से हर भाव-सुमन सुरभित कर दो।   मैं दीपक वह जिसके उर में बस एक स्नेह की राग भरी जिसने तिल-तिल जल-जल...

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मेरे बारे में हवाओं से वो कब पूछेगा

मेरे बारे में हवाओं से वो कब पूछेगा खाक जब खाक में मिल जाऐगी तब पूछेगा घर बसाने में ये खतरा है कि घर का मालिक रात में देर से आने का सबब पूछेगा अपना गम सबको बताना है तमाशा करना, हाल-ऐ- दिल उसको सुनाएँगे वो जब पूछेगा जब बिछडना भी तो हँसते हुए जाना वरना, हर कोई रुठ जाने का सबब पूछेगा हमने लफजों के जहाँ दाम लगे बेच दिया, शेर पूछेगा हमें अब न अदब पूछेगा

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कल सहसा यह सन्देश मिला

कल सहसा यह सन्देश मिला सूने-से युग के बाद मुझे कुछ रोकर, कुछ क्रोधित हो कर तुम कर लेती हो याद मुझे।   गिरने की गति में मिलकर गतिमय होकर गतिहीन हुआ एकाकीपन से आया था अब सूनेपन में लीन हुआ।   यह ममता का वरदान सुमुखि है अब केवल अपवाद मुझे मैं तो अपने को भूल रहा, तुम कर लेती हो याद मुझे।   पुलकित सपनों का क्रय करने मैं आया अपने प्राणों से लेकर अपनी कोमलताओं को मैं टकराया पाषाणों से।   मिट-मिटकर...

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नदी को रास्ता किसने दिखाया?

नदी को रास्ता किसने दिखाया? सिखाया था उसे किसने कि अपनी भावना के वेग को उन्मुक्त बहने दे? कि वह अपने लिए खुद खोज लेगी सिन्धु की गम्भीरता स्वच्छन्द बहकर?   इसे हम पूछते आए युगों से, और सुनते भी युगों से आ रहे उत्तर नदी का। मुझे कोई कभी आया नहीं था राह दिखलाने, बनाया मार्ग मैने आप ही अपना। ढकेला था शिलाओं को, गिरी निर्भिकता से मैं कई ऊँचे प्रपातों से, वनों में, कंदराओं में, भटकती, भूलती मैं फूलती उत्साह...

सावधान, जन-नायक

सावधान, जन-नायक सावधान। यह स्तुति का साँप तुम्हे डस न ले। बचो इन बढ़ी हुई बांहों से  धृतराष्ट्र - मोहपाश  कहीं तुम्हे कस न ले।   सुनते हैं कभी, किसी युग में  पाते ही राम का चरण-स्पर्श  शिला प्राणवती हुई,   देखते हो किन्तु आज  अपने उपास्य के चरणों को छू-छूकर  भक्त उन्हें पत्थर की मूर्ति बना देते हैं।   सावधान, भक्तों की टोली आ रही है  पूजा-द्रव्य लिए! बचो अर्चना से, फूलमाला से, अंधी अनुशंसा की हाला...

आज ही होगा

मनाना चाहता है आज ही?  -तो मान ले  त्यौहार का दिन आज ही होगा!   उमंगें यूँ अकारण ही नहीं उठतीं, न अनदेखे इशारे पर कभी यूँ नाचता मन; खुले से लग रहे हैं द्वार मंदिर के  बढ़ा पग- मूर्ति के शृंगार का दिन आज ही होगा!   न जाने आज क्यों दिल चाहता है- स्वर मिला कर  अनसुने स्वर में किसी की कर उठे जयकार! न जाने क्यूँ  बिना पाए हुए भी दान याचक मन, विकल है व्यक्त करने के लिए आभार!   कोई तो, कहीं तो प्रेरणा...

कौन जाने?

झुक रही है भूमि बाईं ओर, फ़िर भी कौन जाने? नियति की आँखें बचाकर, आज धारा दाहिने बह जाए।   जाने  किस किरण-शर के वरद आघात से निर्वर्ण रेखा-चित्र, बीती रात का, कब रँग उठे।  सहसा मुखर हो मूक क्या कह जाए?   'सम्भव क्या नहीं है आज- लोहित लेखनी प्राची क्षितिज की, कर रही है प्रेरणा,  यह प्रश्न अंकित?    कौन जाने आज ही नि:शेष हों सारे  सँजोये स्वप्न, दिन की सिध्दियों में कौन जाने शेष फिर भी,...

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गीत बनकर मैं मिलूँ

गीत बनकर मैं मिलूँ यदि रागिनी बन आ सको तुम।   सो रहा है दिन, गगन की गोद में रजनी जगी है, झलमलाती नील तारों से जड़ी साड़ी फबी है। गूँथ कर आकाश-गंगा मोतियों के हार लाई, पहिन कर रजनी उसे निज वक्ष पर कुछ मुस्कुराई। चित्र अंकित कर रही धरती सरित के तरल पट पर, समझ यह अनुचित, समीरण ने हिलाया हाथ सत्वर। इस मिलन की रात का प्रिय चित्र बनकर मैं मिलूँ रेखा अगर बन आ सको तुम।   जा रही है रात, आया प्रात कलियाँ मुस्कराईं, मधुप का...

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वीर तुम बढ़े चलो

वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!   हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं  वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!   सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो  तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं  वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!   प्रात हो कि रात हो संग हो न साथ हो सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!   एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए मातृ भूमि...

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खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...

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सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...

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पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है

पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...

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हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...

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