ग़ज़ल

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शक्ल जब बस गई आँखों में

शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा दिल में घर करके मेरी जान ये परदा कैसा   आप मौजूद हैं हाज़िर है ये सामान-ए-निशात उज़्र सब तै हैं बस अब वादा-ए-फ़रदा कैसा   तेरी आँखों की जो तारीफ़ सुनी है मुझसे घूरती है मुझे ये नर्गिस-ए-शेहला कैसा   ऐ मसीहा यूँ ही करते हैं मरीज़ों का इलाज कुछ न पूछा कि है बीमार हमारा कैसा   क्या कहा तुमने, कि हम जाते हैं, दिल अपना संभाल ये तड़प कर निकल आएगा संभलना कैसा

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समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का

समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का  'अकबर' ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का  गर शैख़-ओ-बहरमन[1] सुनें अफ़साना किसी का  माबद[2] न रहे काबा-ओ-बुतख़ाना[3] किसी का  अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चाँद-सी सूरत रौशन भी करो जाके सियहख़ाना[4] किसी का  अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़[5] नींद के साहब  ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का  इशरत[6] जो नहीं आती मेरे दिल में, न आए  हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का करने जो नहीं देते बयां हालत-ए-दिल को ...

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हंगामा है क्यूँ बरपा

  हंगामा है क्यूँ बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है   ना-तजुर्बाकारी से, वाइज़[1] की ये बातें हैं इस रंग को क्या जाने, पूछो तो कभी पी है   उस मय से नहीं मतलब, दिल जिस से है बेगाना मक़सूद[2] है उस मय से, दिल ही में जो खिंचती है   वां[3] दिल में कि दो सदमे,यां[4] जी में कि सब सह लो उन का भी अजब दिल है, मेरा भी अजब जी है   हर ज़र्रा चमकता है, अनवर-ए-इलाही[5] से हर साँस ये कहती है,...

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शोला था जल-बुझा हूँ, हवायें मुझे न दो

शोला था जल-बुझा हूँ हवायें मुझे न दो  मैं कब का जा चुका हूँ सदायें मुझे न दो   जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया  अब तुम तो ज़िन्दगी की दुआयें मुझे न दो    ऐसा कहीं न हो के पलटकर न आ सकूँ  हर बार दूर जा के सदायें मुझे न दो    कब मुझ को ऐतेराफ़-ए-मुहब्बत न था "फ़राज़" कब मैं ने ये कहा था सज़ायें मुझे न दो

Bashirbadr 275x153.jpg

मेरे बारे में हवाओं से वो कब पूछेगा

मेरे बारे में हवाओं से वो कब पूछेगा खाक जब खाक में मिल जाऐगी तब पूछेगा घर बसाने में ये खतरा है कि घर का मालिक रात में देर से आने का सबब पूछेगा अपना गम सबको बताना है तमाशा करना, हाल-ऐ- दिल उसको सुनाएँगे वो जब पूछेगा जब बिछडना भी तो हँसते हुए जाना वरना, हर कोई रुठ जाने का सबब पूछेगा हमने लफजों के जहाँ दाम लगे बेच दिया, शेर पूछेगा हमें अब न अदब पूछेगा

Aarsi prasad singh 275x153.jpg

तुम्हारी प्रेम-वीणा का अछूता तार मैं भी हूँ

तुम्हारी प्रेम-वीणा का अछूता तार मैं भी हूँ मुझे क्यों भूलते वादक विकल झंकार मैं भी हूँ मुझे क्या स्थान-जीवन देवता होगा न चरणों में तुम्हारे द्वार पर विस्मृत पड़ा उपहार मैं भी हूँ बनाया हाथ से जिसको किया बर्बाद पैरों से विफल जग में घरौंदों का क्षणिक संसार मैं भी हूँ खिला देता मुझे मारूत मिटा देतीं मुझे लहरें जगत में खोजता व्याकुल किसी का प्यार मैं भी हूँ कभी मधुमास बन जाओ हृदय के इन निकुंजों में प्रतिक्षा में युगों से जल रही पतझाड़...

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सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं  सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से  सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं  सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी  सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं  सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़  सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं  सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं  ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं  सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है  सितारे...

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टकरा ही गई मेरी नज़र उनकी नज़र से

टकरा ही गई मेरी नज़र उनकी नज़र से धोना ही पङा हाथ मुझे, कल्ब-ओ-जिगर[1] से इज़हार-ए-मोहब्बत न किया बस इसी डर से ऐसा न हो गिर जाऊँ कहीं उनकी नज़र से ऐ ज़ौक़-ए-तलब[2], जोश-ए-जुनूँ ये तो बता दे जाना है कहाँ और हम आए हैं किधर से ऐ अहल-ए-चमन[3], सहन-ए-चमन[4] से कफ़स[5] अच्छा महफूज़ तो हो जाएँगे हम बर्क-ए-शरर[6] से 'फ़य्याज़' अब आया है जुनूँ जोश पे अपना हँसता है ज़माना, मैं गुज़रता हूँ जिधर से शब्दार्थ: 1. कल्ब-ओ-जिगर = दिल और कलेजा ...

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अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें

  अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें   ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती ये ख़ज़ाने तुझे मुम्किन[1] है ख़राबों[2] में मिलें   तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों[3] में मिलें   ग़म-ए-दुनिया[4] भी ग़म-ए-यार[5] में शामिल कर लो नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें   आज हम दार[6] पे खेंचे गये जिन बातों पर क्या...

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ख़ामोश हो क्यों दाद-ए-ज़फ़ा क्यूँ नहीं देते

  ख़ामोश हो क्यों दाद-ए-ज़फ़ा[1] क्यूँ नहीं देते  बिस्मिल[2] हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते    वहशत[3] का सबब रोज़न-ए-ज़िन्दाँ[4] तो नहीं है  मेहर-ओ-महो-ओ-अंजुम[5] को बुझा क्यूँ नहीं देते    इक ये भी तो अन्दाज़-ए-इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ[6] है  ऐ चारागरो![7] दर्द बढ़ा क्यूँ नहीं देते    मुंसिफ़[8] हो अगर तुम तो कब इन्साफ़ करोगे  मुजरिम[9] हैं अगर हम तो सज़ा क्यूँ नहीं देते    रहज़न[10] हो तो हाज़िर है मता-ए-दिल-ओ-जाँ[11]...

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