पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला ...
ले चल वहाँ भुलावा देकर मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ...
बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ! नींद थी मेरी अचल निस्पन्द कण कण में, प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पन्दन में ...
साथी, नया वर्ष आया है! वर्ष पुराना, ले, अब जाता, कुछ प्रसन्न सा, कुछ पछताता ...
एक युग, एक दिन, एक पल, एक क्षण पर गगन से उतर चंचला आ गई ...
‘लौ’ के कंपन से बनता क्षण में पृथ्वी-आकाश ...
वो गुल हूँ ख़िज़ां ने जिसे बरबाद किया है उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ ...
बुद्धि यन्त्र है, चला; न बुद्धि का गुलाम हो। सूझ अश्व है, चढ़े-- चलो, कभी न शाम हो ...
आओ, नूतन वर्ष मना लें! गृह-विहीन बन वन-प्रयास का तप्त आँसुओं, तप्त श्वास का, एक और युग बीत रहा है, आओ इस पर हर्ष मना लें ...
रश्मि चुभते ही तेरा अरुण बान ! बहते कन-कन से फूट-फूट, मधु के निर्झर से सजग गान ...
तुम तुंग - हिमालय - श्रृंग और मैं चंचल-गति सुर-सरिता ...
नहीं मालूम क्यों यहाँ आया ठोकरें खाते हुए दिन बीते। उठा तो पर न सँभलने पाया गिरा व रह गया आँसू पीते ...
लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो, भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा ...
स्नेह-निर्झर बह गया है ! रेत ज्यों तन रह गया है ...
गहन है यह अंधकारा; स्वार्थ के अवगुंठनों से हुआ है लुंठन हमारा ...